नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट ने एक कैदी की पैरोल के लिए याचिका पर फैसला सुनाया है। जेल में उम्रकैद की सजा काट रहे कैदी की पत्नी और बच्चे हैं। फिर भी वो चाहता था कि पैरोल पर बाहर आकर अपनी लिव-इन पार्टनर के साथ संबंध बनाए। वह उससे संतान चाहता था। इसके लिए उसने कोर्ट में पैरोल की याचिका लगाई थी, जिसे हाईकोर्ट की जज ने नामंजूर कर दिया है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि भारत का कानून एवं जेल का नियम किसी कैदी को वैवाहिक संबंध बनाने के लिए पैरोल की अनुमति नहीं देता, वह भी लिव-इन पार्टनर के साथ। दिल्ली हाईकोर्ट की जज स्वर्णकांता शर्मा ने गुरुवार को मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि अपने या अपनी लिव-इन पार्टनर से संतान पैदा करना कानून एवं जेल नियमों के दायरे में उसका मूल अधिकार है। जबकि लिव-इन पार्टनर का जीवनसाथी जीवित है और उनके बच्चे भी हैं। हाईकोर्ट के जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा, यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि मौजूदा कानून किसी को कानूनन शादी वाली पत्नी के साथ संबंध बनाने के लिए पैरोल प्रदान करने की अनुमति नहीं देता है। लिव-इन पार्टनर को तो छोड़ ही दीजिए। दिल्ली हाईकोर्ट की जज स्वर्णकांता शर्मा ने गुरुवार को मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि अपने या अपनी लिव-इन पार्टनर से संतान पैदा करना कानून एवं जेल नियमों के दायरे में उसका मूल अधिकार है। जबकि लिव-इन पार्टनर का जीवनसाथी जीवित है और उनके बच्चे भी हैं। हाईकोर्ट के जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा, यह उल्लेख करना भी जरूरी होगा कि मौजूदा कानून किसी को कानूनन शादी वाली पत्नी के साथ संबंध बनाने के लिए पैरोल प्रदान करने की अनुमति नहीं देता है। लिव-इन पार्टनर को तो छोड़ ही दीजिए। बता दें, याचिका लगाने वाला शख्स जेल में उम्र कैद की सजा काट रहा है। उसने शुरुआत में यह खुलासा नहीं किया था कि महिला उसकी लिव-इन पार्टनर है और वह उसकी कानूनन विवाहित पत्नी नहीं है या पहले ही उसकी (व्यक्ति की) किसी और से शादी हो चुकी है। महिला ने याचिका में खुद को उसकी पत्नी बताया और व्यक्ति ने भी यह खुलासा नहीं किया कि वह अपनी पहली पत्नी से कानूनन अलग नहीं हुआ है, जिसके साथ उसके तीन बच्चे हैं। अदालत ने कहा, भारत में कानून और दिल्ली जेल नियम वैवाहिक संबंध बनाने के लिए पैरोल की अनुमति नहीं देते हैं, वह भी लिव-इन पार्टनर के साथ। अदालत ने कहा, दूसरे शब्दों में कानूनन विवाहित पत्नी के जीवित होने और तीन संतान होने के बावजूद कोई दोषी कानून एवं जेल नियमावली के दायरे में अपने लिव-इन पार्टनर से बच्चा पैदा करने को अपना मूल अधिकार होने का दावा नहीं कर सकता, जो खुद भी एक दोषी है। अदालत ने कहा कि दोषी की लिव-इन पार्टनर, जिसे पत्नी या जीवनसाथीके रूप में कानूनी मान्यता नहीं प्राप्त है, वह दिल्ली जेल नियमों के तहत परिवार की परिभाषा के दायरे में नहीं आती है।