AIIMS की बड़ी उपलब्धि! अब रेयर जेनेटिक बीमारियों की होगी सटीक जांच, नई तकनीक से मुमकिन

नई दिल्ली: रेयर जेनेटिक डिजीज की बीमारी से जूझ रहे मरीजों के लिए दिल्ली एम्स से एक राहत भरी खबर आई है. दरअसल, यहां के डॉक्टरों ने एक नए तरीके की खोज की है, जिससे रेयर जेनेटिक डिजीज की सटीक जांच हो सकेगी. इससे मरीजों का इलाज सही समय पर हो सकेगा. डॉक्टरों का दावा है कि इस नए मेथड के जरिए किडनी में सिस्ट, अंधेपन, हड्डियों की बनावट में हुई गड़बड़ी की भी जांच आसान हो सकेगी.
ट्रांसमिशन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी बेहद शक्तिशाली जांच विधि
इस खोज में एम्स के डॉ. सुभाष चंद्र यादव और पीडियाट्रिक विभाग के प्रो. काना राम जाट की टीम ने मिलकर ट्रांसमिशन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (टीईएम) नाम की एक बेहद शक्तिशाली जांच विधि को और बेहतर बना दिया है. इसका फायदा ये है कि अब डॉक्टर मरीज के शरीर की बारीक से बारीक कोशिकाओं को भी साफ-साफ देख सकते हैं. यह तकनीक बच्चों के साथ ही वयस्कों में होने वाली रेयर डिजीज के इलाज में भी कारगर है. मतलब इस खोज से विकसित हुए तरीके से बीमारी की जड़ तक पहुंचा जा सकता है.
प्राइमरी सिलीअरी डिस्काइनेसिया जैसी बीमारी की होगी पहचान
ये तकनीक उन लोगों के लिए उम्मीद की किरण है जो रेयर जेनेटिक बीमारियों से जूझ रहे हैं. खासतौर पर बच्चों में सांस की जन्मजात और दुर्लभ बीमारी प्राइमरी सिलीअरी डिस्काइनेसिया (पीसीडी), जो सांस लेने से जुड़ी एक गंभीर और अक्सर पहचान में न आने वाली बीमारी है. डॉ सुभाष ने बताया कि इस जांच के लिए नाक से सैंपल लिया जाता है.
पांच साल पहले इस नए मेथड पर शुरू हुआ था रिसर्च
डॉ सुभाष ने बताया कि पांच साल पहले इस नए मेथड पर रिसर्च शुरू किया गया था, अब इसका सटीक परिणाम आया है. उन्होंने बताया कि मेथड अभी बच्चों में होने वाली रेयर जेनेटिक डिजीज की सटीक जांच में फायदेमंद साबित हो सकेगा. डॉ सुभाष ने बताया कि इस नए मैथड के जरिए सांस की बीमारी, किडनी में सिस्ट, अंधापन, दिमागी विकास में कमी, स्क्रीन संबंधित बीमारी, बांझपन समेत अन्य कई बीमारियों की सटीक जांच हो सकेगी.
मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है शोध
एम्स के डाक्टरों का यह शोध हाल ही में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के मेडिकल जर्नल माइक्रोस्कोपी एंड माइक्रोएनालिसिस में प्रकाशित हुआ है. डॉ. यादव ने बताया कि दस हजार में से एक बच्चे को पीसीडी की बीमारी होती है. इस बीमारी में फ्लू जैसे लक्षण होते हैं. जन्म के समय से ही जीन में म्यूटेशन के कारण फेफड़े के सिलिया सेल में खराबी होती है. सिलिया सेल कफ होने पर उसे बाहर निकालने का काम करता है. इस बीमारी से पीड़ित बच्चे का कफ बाहर नहीं निकल पाता. इससे बच्चे बार बार निमोनिया और सांस की बीमारी से पीड़ित होते हैं.
200 मरीजों के सैंपल पर हुई रिसर्च
डॉक्टरों ने बताया कि इस नए मेथड को 200 बच्चों पर आजमाया गया. इनमें से 135 मरीजों में बीमारी की पुष्टि हो गई, जो पहले सामान्य जांच में पकड़ में नहीं आ रही थी. लिहाजा, अब इस नए मेथड का इस्तेमाल करके बीमारी को समझना और उस पर सही इलाज शुरू करना काफी आसान हो जाएगा. यह मेथड परंपरागत तरीकों से 640 गुना ज्यादा बारीक और तेज है. यानी अब बीमारियां छुप नहीं सकेंगी. सैंपल लेने से लेकर जांच की इमेज तैयार कर सटीक जांच हो सकेगी.
क्यों पड़ी इस शोध की जरूरत
पीडियाट्रिक विभाग के प्रोफेसर डॉ. कानाराम जाट ने बताया कि प्राइमरी सिलीअरी डिस्काइनेसिया (पीसीडी) नाम की बीमारी से पीड़ित ज्यादातर बच्चे 20 वर्ष की उम्र में जान गंवा देते हैं. इसके मद्देनजर एम्स में यह शोध शुरू किया गया. टीईएम तकनीक से 200 बच्चों की जांच की गई. इस जांच से 70 प्रतिशत बच्चों में यह बीमारी होने की पुष्टि हुई. विदेश में टीईएम जांच होती है, लेकिन वहां इस जांच के लिए अलग तरीका अपनाया जाता है.
विदेश में इस जांच के लिए अपनाए जाने वाले तरीके से 70 प्रतिशत मरीजों की पहचान नहीं हो पाती. इसके अलावा विदेश में इस जांच का शुल्क 70 हजार से एक लाख रुपये है, जबकि एम्स अपने मरीजों के लिए निशुल्क यह सुविधा दे रहा है.