अनसूयाजी की सीताजी को सीख एवं श्रीराम द्वारा लक्ष्मणजी के प्रश्नों के उत्तर
वन में घूमते हुए श्रीराम, लक्ष्मणजी व सीताजी अनेक ऋषि-मुनियों के आश्रम में गए। वे अत्रि मुनि के आश्रम में पहुँचे। दौड़ कर अत्रिजी ने उनकी पूजा अर्चना कर स्वागत किया। उनके प्रेमाश्रुओं से श्रीरामजी, लक्ष्मणजी व सीताजी गदगद हो गए। उनके आश्रम में सीताजी की भेंट माता अनसूयाजी से हुई। माता सीता ने उनके चरण वन्दन कर आशीर्वाद प्राप्त किया। माता अनसूयाजी ने सीताजी को दिव्य वस्त्राभूषण प्रदान किए जो सर्वदा सुहावने व स्वच्छ रहेंगे। अनसूयाजी ने सीता को नारी धर्म से सम्बन्धित कुछ शिक्षा प्रदान की-
मातु पिता भ्राता हितकारी। मित प्रद सब सुनु राजकुमारी।।
अमित दानी भर्ता बयदेही। अधम सोनारि जो सेव न तेही।।
अर्थात्- 'हे राजकुमारी! माता-पिता, भाई ये सभी हित करने वाले हैं। परन्तु ये सीमित सुख देते हैं। परन्तु पति असीम सुख देने वाला होता है। वह स्त्री अधम है जो पति-सेवा नहीं करती है।Ó
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा ४/४)
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिंचारी।।
वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा ४/४)
अर्थात्- धैर्य, धर्म, मित्र और नारी इन चारों की परीक्षा संकटकाल में ही होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अन्धा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त दीन भी पति हो तो भी सेवा करनी चाहिए।
एसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।
एकहु धर्म एक व्रत नेमा। कायँ वचन मन पति पद प्रेमा।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा ४/५)
अर्थात् पति का अपमान करने पर पत्नी यमपुर में भाँति भाँति के दु:ख पाती है। मन, शरीर और वचन से पति सेवा करना स्त्री का एकमात्र धर्म है। यह नियम है। अनसूयाजी ने चार प्रकार की पतिव्रताओं के भेद बतलाए हैं-
पतिव्रता के मन में हमेशा ऐसा भाव रहता है कि मेरे पति को छोड़कर मेरे मन में कोई दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं रहता है।
मध्यम श्रेणी की पतिव्रताएँ पर पुरुष को अपना सगे भाई, पिता या पुत्र के समान मानती हैं। बड़े व्यक्ति को पिता के समान व छोटे को पुत्र के समान समझती है।
कई स्त्रियाँ मौका न मिलने पर या भयवश पतिव्रता बनी रहती हैं। पति को धोखा देती है और पराये पति से रति करती है। ऐसी स्त्रियाँ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती हैं।
अनेक स्त्रियाँ धर्म का विचार कर अपने कुल की मर्यादा बनाए रखती हैं। वेदों का भी यही कथन है।
कई स्त्रियाँ निकृष्ट श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं। क्षणिक सुख के लिए अनेक जन्मों के दु:ख को नहीं समझती है। उसके समान दुष्टा कौन है? पति के प्रतिकूल चलती है। दूसरे जन्म में वे युवावस्था में ही विधवा हो जाती है।
जन्म से ही अपवित्र नारी अनायास ही पति सेवा करके शुभ गति प्राप्त कर लेती है। 'तुलसीजीÓ आज भी भगवान को प्रिय है। चारों वेद भी उनका यशोगान करते हैं।
सीताजी स्वयं पाँच पतिव्रताओं में से एक हैं। वर्तमान युग में भी महिलाएँ माता सीताजी का स्मरण कर पतिव्रता धर्म का पालन कर सकती है। अनसूयाजी ने सम्पूर्ण संसार के कल्याणार्थ ये सभी बातें सीताजी को बताई हैं।
श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड से दोहा क्र. ४ से ५ के मध्य की समस्त चौपाइयों के अर्थ (माता अनसूयाजी की माता सीता को शिक्षा प्रसंग) का समावेश मैंने अपने आलेख में किया है। आलेख का विस्तार अधिक न हो, इसलिए मैंने चौपाइयों का भावार्थ बताया है।
अत्रि-आश्रम से सभी का आशीर्वाद ग्रहण कर श्रीराम, लक्ष्मणजी व सीताजी वहाँ से शरभंग मुनि के आश्रम में आए। मुनि ने अपना योग, यज्ञ, तप, जब सब कुछ प्रभु राम के चरणों में समर्पित कर दिया और स्वयं वैकुण्ठ लोक को पधार गए।
आगे बढ़ने पर श्रीराम को एक स्थान पर हड्डियों के ढेर दिखलाई दिए। उन्होंने ऋषि-मुनियों से इनके बारे में पूछा तो उनका कथन था कि यहाँ निवास करने वाले राक्षसों ने ऋषि-मुनियों का भक्षण कर लिया है। ये हड्डियों के ढेर उन्हीं के हैं। यह देखकर श्रीराम अत्यधिक दु:खी हुए। उन्होंने उसी समय प्रण किया-
निसिचर हीन करऊँ महि भुज उठाई पन कीन्ह।।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा ९)
अर्थात् श्रीराम ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रम में जाकर उन्हें सुख दूँगा।
तत्पश्चात् श्रीरामजी ने सुतीक्ष्ण मुनि की वन्दना स्वीकार की और अगस्त्यजी के आश्रम में पधारे। वहाँ वे अगस्त्यजी से पूछते हैं-
तब रघुवीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं।।
तुम्ह जानहु जे हि कारन आयऊँ। ताते तात न कहि समझायउँ।।
(श्रीरामचरितमानस मानस अरण्यकाण्ड दोहा १२/१)
अर्थात् तब श्रीरामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो आपसे तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ वह आप जानते ही हैं। इसी से हे तात! मैंने आपसे समझाकर कुछ नहीं कहा।
अगस्त्यजी उन्हें दण्डकवन में पंचवटी नामक स्थान पर निवास करने की सलाह देते हैं। श्रीराम, लक्ष्मणजी व सीताजी पंचवटी में आते हैं। वहाँ की सुन्दर प्राकृतिक छटा सभी को मोहित करती है। श्रीराम सुखपूर्वक बैठे हैं तब लक्ष्मणजी बड़ी विनम्रता से श्रीरामजी से कुछ प्रश्न पूछते हैं-
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जाते होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १४)
अर्थात्- हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिये, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएं।
श्रीरामजी कहते हैं-
थोरेहि महँ सब कहऊँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चितलाई।।
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जे हिं बस कीन्हे जीव निकाया।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १४/१)
अर्थात्- मैं, मेरा, तू और तेरा यह विचार ही माया है। इसी धारणा ने सभी को वश में कर लिया है। इन्द्रियों के सुखों, विषय भोगों में मन जाता है तो इसे माया ही कहा जाता है। माया के दो भेद बतलाए गए हैं- १. विद्या, २. अविद्या।
विद्या रूपी भेद माया से मुक्त करती है।
अविद्या-अविद्या रूपी माया जीव को जन्म मरण के चक्कर में भटकाती रहती है। मृत्यु और जन्म के चक्कर में फंसी रहती है।
ज्ञान किसे कहते हैं?
अच्छा प्रवचनकार, प्रकाण्ड पंडित, शास्त्रज्ञ, अनेक भाषाओं का जानकार ज्ञानी है।
पंडित और ज्ञानी में क्या भेद है?
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्य दोहा १४/४)
ऐसा जीव जो सभी में ब्रह्म को देखता है। जो परम वैराग्यवान है। जो सभी सिद्धियों और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका है। उसे ज्ञानवान कहते हैं। भगवद् गीता में कहा है-
मन्मना भव भद्भक्तो मद्याजी मांनमस्कुरू।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।६५।।
(श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय १८/६५)
अर्थात्- मुझमें मन लगा कर मेरी भक्ति करो। किसी दूसरे की कामना मत करो। सभी धर्मों का त्याग कर मेरी शरण में आ जाओ।
सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज
(श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय १८/६६)
सदैव मेरा चिन्तन करो। मेरे भक्त बनो। सब धर्म त्याग कर मेरी शरण में ही रहो।
बैरागी किसे कहते हैं?
श्रीरामजी कहते हैं-
कहिअ तात सो परम बिरागी।
तृन सम सिद्धि तीनि गुण त्यागी।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १४/५)
अर्थात्- परम वैरागी वह है जो समस्त सिद्धियों को तिनके के समान तुच्छ समझता है। सिद्धियाँ उसके लिए तुच्छ है। जिसके तन में तीन गुण रूपी प्रकृति में कोई आसक्ति नहीं वह परम वैरागी है।
जीव और ईश्वर में क्या भेद है?
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो नीव।
बंध मोच्छ प्रद सर्ब पर माया प्रेरक सीव।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १५)
जो माया ईश्वर और अपने स्वरूप को नहीं जानता उसे जीव कहना चाहिए। जो मोक्ष और बन्धन देने वाला, जो सबसे परे, माया से प्रेरित करने वाले हैं वे ईश्वर हैं।
भक्ति के साधन कौन से हैं? जिससे भक्ति प्राप्त हो जाए। श्रीराम कहते हैं-
भगति कि साधन कहऊँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहि प्रानी।।
प्रथमहि, विप्रचरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती।।
एहि कर फल पुनि विषय विरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा।।
श्रवनादिक नवभक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १५/३, ४)
श्रीराम भक्ति के साधन बतलाते हुए कहते हैं कि विवेकशील व्यक्ति के चरण पकड़ने चाहिए। वेद निर्धारित मार्ग पर चलें। अपने कर्म तथा कर्त्तव्य का पालन करें। ऐसा करने से विषयों में वैराग्य होगा। इससे भागवत धर्म में प्रेम होगा। नौ प्रकार की भक्ति उदित होगी। सन्त चरणों में रति, मनसा, वाचा, कर्मणा भगवद् भजन, माता-पिता, गुरु, भाई, पति और देवता सब में मेरे ही दर्शन करे, सेवा करे, वन्दन करे तो हमें भक्ति प्राप्त होगी। भगवान कहते हैं-
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा।।
काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकें।।
(श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड दोहा १५/६)
अर्थात् मेरा गुण गाते समय जीव का शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए। नयनों से प्रेमाश्रु बहने लगे, काम, मद, दम्भ, क्रोध आदि दुर्गुणों से जो दूर हो। ऐसे भक्त के मैं सदा वश में रहता हूँ। लगभग इसी आशय के श्लोक में श्रीकृष्णजी कहते हैं-
मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्करु।
मामे वैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८/६५)
हमेशा मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार तुम, निश्चित रूप से मेरे पास आओगे। मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रिय मित्र हो। तथा
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।६६।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय १८/६६)
अर्थात्- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ। मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा।
श्रीरामजी लक्ष्मणजी से कहते हैं-
वचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं नि:काम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा विश्राम।।
(श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड दोहा-१६)
अर्थात् जिनको कर्म वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय-कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ।
लक्ष्मणजी द्वारा पूछे गए इन प्रश्नों के उत्तर मानस साहित्य में रामगीता के नाम से विख्यात है। भक्तगण भक्ति का विस्तृत विवेचन, श्रवण तथा पठन इस रामगीता के माध्यम से करते हैं। लक्ष्मणजी के गूढ़तम प्रश्नों का उत्तर श्रीराम बड़ी सहजता से देते गए और लक्ष्मणजी की शंका का समाधान कर दिया। जो भक्त सभी योनियों में श्रीराम में (ईश्वर में) श्रद्धापूर्वक मन लगाकर भक्ति करता है, वह महान योगी है। मन, वाणी, कर्म तीनों की गति भगवान में ही रहनी चाहिए।
आपदामपहर्तारंदातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्।।३५
(श्रीबुधकौशिकमुनिविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रम् ३५)